Sunday, 15 November 2015

खोयी हुई दिवाली

मानवी मूल्यों के पतन के साथ 
पडोसी धर्म भी ख़त्म हुआ
अब बारहा मन में सवाल उठता है कि
इन्सानियत का यह कौन सा दौर आया।

पहले भी घर-घर में गरीबी थी
लेकिन था पड़ोसियों का कितना आधार
अब रईसी में प्यारी लगने लगी
अपने घर की हर दिवार।

शब्दों का व्यवहार ठप पड़ा 
थोड़ा सा हसना यही हुआ व्यवहार 
पडोसी  धर्म की मधुर चांदनी 
अब तो हुई है सीमा पार।

अब दिवाली के नाश्ते की थालियां 
नहीं जाती आडोसी-पडोसी के घरों में
अब पडोसी की जात तलाशी जाती है
चुपके-चुपके अपने मन में।

उस वक़्त दिवाली का आनंद भरा रहता था
खेतों में खलिहानों में और घरो-घरों में 
असीम आनंद की चंद्रिका जैसे 
थिरकती रहती थी हर के चितवन में।

अब अपने माकन का घोसला छोड़ने के लिए
इंसान कतई नहीं है तैयार
लिहाज पडोसी धर्म चला गया है
जज्बातों के उस पार।

उस वक़्त दिवाली का कितना आनंद था 
और फिजा में गूंज उठते थे पटाखे
अब आनंद का यह वस्त्र इतना फट चूका है कि 
सिलया नहीं जायेगा, चाहे लगा लो जितने टाँके।

कहाँ खो गया है वह आनंद 
वह दिवाली कहाँ खो गई 
कहाँ गए वे सारे इन्सान
जिन के मन में थी अपनेपन की रोशनी।

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