Monday 12 October 2015

ग़ज़ल

ये ठीक है कि तेरी गली में न आयें हम.
लेकिन ये क्या कि शहर तेरा छोड़ जाएँ हम.

मुद्दत हुई है कूए बुताँ की तरफ़ गए,
आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम.

शायद बकैदे-जीस्त ये साअत न आ सके
तुम दास्ताने-शौक़ सुनो और सुनाएँ हम.

उसके बगैर आज बहोत जी उदास है,
जालिब' चलो कहीं से उसे ढूँढ लायें हम.

सिखा देती है चलना ठोकरें भी राहगीरों को,
कोई रास्ता सदा दुशवार हो ऐसा नहीं होता. 

कहीं तो कोई होगा जिसको अपनी भी ज़रूरत हो,
हरेक बाज़ी में दिल की हार हो ऐसा नहीं होता.

जो हो इक बार, वह हर बार हो ऐसा नहीं होता,
हमेशा एक ही से प्यार हो ऐसा नहीं होता.

हरेक कश्ती का अपना तज्रिबा होता है दरिया में,
सफर में रोज़ ही मंझदार हो ऐसा नहीं होता.

कहानी में तो किरदारों को जो चाहे बना दीजे,
हक़ीक़त भी कहानी कार हो ऐसा नहीं होता..

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