Saturday 10 October 2015

धन की नहीं मन की जरूरत

गुरु गोविंद सिंह वन में बैठे एकांत चिंतन में लीन थे. उनके मन में देश, समाज और संस्कृति के उत्थान के लिए योजनाओं और कामों के विचार गुज रहे थे. तभी उन्होंने देखा की यमुना को पार कर उनका कोई शिष्य उनकी ओर आ रहा है. जब वह पास आया, तो उन्होंने उसे पहचान लिया. उस शिष्य का नाम रघुनाथ था. वह काफी संपन्न और ऐस्वर्यशाली था. उसे अपनी धन संपदा का भी अभिमान था. पास आकर उसने गुरु को प्रणाम किया और वहीं पास में बैठ गया. गुरु ने पूछा आओं रघु कैसे आये हो? वह बोला सुना कि आप हम लोगो को छोड़कर एकांत वन में जा रहे है. इसलिए विचार आया कि आपकी कुशल क्षेम पूछ आउ गुरु गोविंद सिंह ने कहा मेरी कुशल क्या जानना है रघु. कुशल तो मेरे उन बंदो की पूछ जो अपना सारा समय और सामर्थ लोगों को जगाने में लगाते है. यह कहकर वह भोजन के लिए उठे उनका आहार देखकर रघु ने कहा गुरूजी आप इस रूखे सूखे भोजन से निर्वाह कर रहे है. गोविंद सिंह ने कहा प्रेम का पकवान है यह इन्हे एक भाई दे गया है. यह सुनते ही रघु ने कहा तो में  भी आपकी सेवा में एक तुच्छ भेट अर्पित करता हु. उसने अपने दोनों हाथों के हीरे जेड कड़े उतारे और गुरूजी के सामने रख दिए. गुरु ने उसके चहरे की ओर देखा और कडो की झाड़ी में फेक दिया रघु ने कहा अभी मेरे पास बहोत सम्पति है. जितना कहे उतना में आपको  दे सकता हु. गुरु बोले मुझे सम्पति की नहीं बंदो की जरूरत है. जो समाज के काम में जुट सके यह सुनकर रघुनाथ को सच्चाई का बोद हुआ उसने तत्काल समाज 
सेवा का प्राण ले लिया गुरु जी ने उसे गले से लगा लिया. 

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